बिडम्बना
आज हम पैरों पर
उगाना चाहते हैं
दूब
लकिन
पैर हो चुके है अनुपजाउ
पैरों से मापना चाहते है
सम्पूर्ण विष्व को
वास्तब में हम हो गये है पंगू
कर रहे हैं नाटक
अपंग होने का।
हमारी दृश्टि
नापना चाहती है
सम्पूर्ण सृश्टि को
परन्तु हमारी आंख
खो चुकी है अपनी पहिचान
अपने और पराये की ।
हमारी आस्तायें
हो चुकी हैं समाप्त
हम ध्यानमगन हैं
बुढे बगुले की तरह
भौतिकता में आलिप्त
निज संस्कृति त्याग कर।
सामाजिक प्रदूशण के इस युग में
काल की कोठरी में करवटें बदल
अपने जीवन की नैया ढो रहे हैं
और सांसारिक चक्र में आलिप्त
जीवन के उदे्ष्यों से खो रहे हैं।